विरह…

देख क्षितिज को मैं सोचूँ
जाने तुम कब आओगे
धरती और गगन के जैसे
मुझसे फिर मिल जाओगे
जाने तुम कब आओगे

ये बारिश की रिमझिम बूंदे
सावन के गीत सुनाती है
सालों जैसे दिन कटते हैं
और रातें मुझें जगाती है
इन बिरहा की घड़ियों को
तुम आकर कब मिटाओगे
जाने तुम कब आओगे

इस मौसम में हरियाली ही
चहुँ ओर दिखाई देती है
मोर और कोयल की प्यारी
बोली भी सुनाई देती है
सूखे तन्हा मेरे मन को
कब हरा तुम कर जाओगे
जाने तुम कब आओगे

इन बारिश की बूंदों में
आँसु को छुपा लेती हूं मैं
कोई पूछे हाल मेरा तो
हँस के दिखा देती हूं मैं
कब आकर अब तुम मेरा
ये हँसना सही बनाओगे
जाने तुम कब आओगे

इस मौसम का इंद्राधनुष
मुझे तेरी याद दिलाता है
दिया हुआ तुम्हारा छाता
कोने में धूल खाता है
इंद्रधनुष के जैसे ही तुम
कब प्यार के रंग दिखाओगे
जाने तुम कब आओगे

रोजरोज की दौड़ धूप में
कभी हड़बड़ा सी जाती हूँ
तुमने दी थी सीख वह
फिर ख़ुद को याद कराती हूँ
बन सहारा मेरा तुम कब
आकर मुझे समझाओगे
जाने तुम कब आओगे

जब से तुम गए परदेश
जैसे कुछ अब रहा न शेष
ख़ुद को ढांढस दिया बहुत
अब नही रख सकती गृहलक्ष्मी का वेश
तुम वापस आकर कब अपना भी
पति व्रत निभाओगे
जाने तुम कब आओगे

भीड़ से गुज़रते हुए अक़्सर
कुछ नज़रे पीछे आती हैं
जब साथ मेरे तुम होते हो
कोई नज़र नही उठ पाती हैं
फिर हाथ थामकर तुम मेरा
उन नजरों को कब झुकाओगे
जाने तुम कब आओगे
जाने तुम कब आओगे….

#मन घुमक्कड़

Published by: Yogesh D

An engineer, mgr by profession, emotional, short story/Poem writer, thinker. My view of Life "Relationships have a lot of meaning in life, so keep all these relationships strong with your love"

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